झारखंड में हार के बाद भाजपा की नई रणनीति, हर गांव और पंचायत में जाकर ले रही है राय
रांची। वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा को झारखंड में झटका लगा तो आनन-फानन में नए चेहरे की तलाश आलाकमान ने आरंभ की। काफी प्रयास कर बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) का भाजपा में विलय कराया गया। मरांडी के पुराने साथी इस प्रक्रिया में छिटक गए, लेकिन उन्होंने नए सिरे से पारी आरंभ की।
उन्होंने पूरे प्रदेश की यात्राएं की और भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास आरंभ किया। एक मायने में भाजपा आलाकमान ने उन्हें राज्य में फ्री हैंड भी दिया। उनके लिए रघुवर दास जैसे कद्दावर नेता को राज्यपाल बनाकर राज्य की राजनीति से दूर किया गया। अर्जुन मुंडा समेत अन्य प्रमुख नेताओं का भी क्षेत्र सीमित किया गया।
जाहिर है कि चुनाव परिणाम पक्ष में नहीं आने के बाद अब हार का ठीकरा उनके मत्थे फोड़ा जा रहा है तो सवाल यह भी है कि क्या भाजपा आदिवासी वोटों का मोह छोड़कर नए सिरे से नया नेतृत्व तलाश करे। बताया जाता है कि हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने इस्तीफे की पेशकश की है।
राज्य में आदिवासी सुरक्षित 28 में से 27 विधानसभा सीटें हारने के बाद पार्टी के लिए सामान्य और ओबीसी राजनीति पर अधिकाधिक फोकस करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। ऐसे में फिर से कई विकल्पों पर विचार किया जा रहा है। इसमें रघुवर दास को सक्रिय करने से लेकर अन्य विकल्प तक सुझाए जा रहे हैं। कतार में कई अन्य नेता भी है। यह भी सुझाव दिया जा रहा है कि नया नेतृत्व उभारा जाए ताकि कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया जा सके।
भाजपा ने हार के कारणों पर मंथन करना आरंभ कर दिया है। इस सिलसिले में मंडल स्तर तक से पार्टी फीडबैक ले रही है। 30 नवंबर को भाजपा के प्रदेश कार्यालय में इस संदर्भ में बैठक होगी। इसमें संगठन प्रभारी डा. लक्ष्मीकांत वाजपेयी हिस्सा लेंगे। इसके बाद तीन दिसंबर को दिल्ली में हार के कारणों की समीक्षा होगी। इतना तो तय है कि पार्टी को मूल कार्यकर्ताओं की भावना के अनुरूप खड़ा करने की तैयारी शीर्ष नेतृत्व करेगा। सभी जिला अध्यक्षों, मंडल अध्यक्षों और प्रभारियों से रिपोर्ट ली जाएगी।
झारखंड मुक्ति मोर्चा और भाजपा के सांसद रहे शैलेंद्र महतो का दावा है कि राज्य में 24 साल के बाद भी भाजपा का झारखंडीकरण नहीं हो सका। झारखंडी अस्मिता पर भाजपा का कोई स्पष्ट फार्मूला नहीं बना। भाजपा का नेतृत्व प्रवासियों के हाथ में आज भी है, जिसे आदिवासी- मूलवासी मानने को तैयार नहीं हैं।
इस चुनाव में झारखंडी अस्मिता, नियोजन नीति, स्थानीयता और भाषा-संस्कृति का मुद्दा गौण रहा। झारखंड के सभी दल मूल मुद्दे से दूर रहे। कल्पना सोरेन और जयराम महतो स्टार प्रचारक रहे, जिसके चुनावी सभा में लोगों की भीड़ उमड़ती रही। भाजपा का बांग्लादेशी मुद्दा और मोदी-योगी का नारा काम नहीं आया।